सामान्यतः लोकविश्वास शब्द 'लोक' और 'विश्वास' इन दो शब्दों के योग से बना है, 'लोक' शब्द को समाज से तथा 'विश्वास' को समाज में व्याप्त विभिन्न मान्यताओं और आस्थाओं से उद्भावित माना जा सकता है। वास्तव में लोक विश्वास ऐसी व्यापक चिंतन प्रक्रिया है, जिसे लोकमानव अपने समाज व परिवार से ज्यों-का-त्यों ग्रहण कर लेता है। लोकविश्वास आदिम काल से आज तक लोक अथवा समाज में इसीलिए जीवित हैं, क्योंकि ये छल-प्रपंच रहित सरल समाज के हृदय में रहते हैं, इसी कारण लोक जीवन में इनके लिए किसी प्रकार की शंका के लिए कोई स्थान नहीं होता। लोकविश्वास को तर्क और बुद्धि के द्वारा किसी भी प्रकार से नहीं समझा जा सकता है, क्योंकि इन लोकविश्वासों के अच्छे व बुरे परिणाम भी इसी सरल हृदय समाज के विश्वास-बिंदु होते हैं। जन सामान्य के मनोमस्तिष्क पर लोकविश्वासों का प्रभाव इतना गहरा है कि इनके वषीभूत वे किसी भी कार्य को करते हैं अथवा नहीं करते, इतना ही नहीं कभी-कभी तो प्रारंभ किए हुए कार्य को रोक भी देते हैं।
हमारे देश के विविध राज्यों में अनेक समाज निवास करते हैं और प्रत्येक समाज की अपनी सांस्कृतिक परंपराएँ एवं लोकविश्वास हैं, जो किसी-न-किसी रूप में दूसरे समाज से भिन्न है, उनकी ये भिन्नता ही उनकी अस्मिता की पहचान है। उत्तराखंड राज्य में कुमाऊँ और गढ़वाल दो मंडल हैं, कुमाऊँ क्षेत्र की अपनी भाषा-बोलियाँ, सांस्कृतिक परंपराएँ तथा लोकविश्वास हैं, जो देश के अन्य भू-भागों से अलग उसकी विशिष्ट पहचान बनाती हैं। कुमाऊँ के जन-जीवन पर आधारित उपन्यास 'आसमान झुक रहा है' के लेखक हरिसुमन बिष्ट ने प्रस्तुत उपन्यास में कुमाऊँ के ग्रामीण समाज का रहन-सहन, उनके लोक-विश्वास, देवी-देवताओं के प्रति उनकी मान्यताएँ आत्मा-परमात्मा के संबंध में प्रचलित रूढ़ियों आदि का सजीव चित्रण किया है।
उपन्यास के प्रारंभ में कुमाउँनी समाज में प्रचलित चैत्र मास के पहले दिन मनाए जाने वाले पहले त्योहार 'फूलदेइ' का वर्णन है। इस दिन महिलाएँ घर की देहरी को गेरू (लाल मिट्टी) से लीपकर उस पर बिस्वार (चावल को भिगोकर पीसा जाता है) से ऐपण (अल्पना) देती हैं। कुमाऊँ में प्रत्येक मांगलिक अवसर पर ऐपण दिए जाने की परंपरा है, समयाभाव के कारण आज भी अनेक उत्साही महिलाएँ उत्सव-त्योहार की पूर्व रात्रि को ही घर-देहरी को गोबर-मिट्टी से लीपकर गेरू लगाकर ही सोती हैं, ताकि सुबह उठकर उनके घर की देहरी प्रत्येक आगंतुक का मुस्काराकर स्वागत करती-सी प्रतीत हो और वह घर की लिपाई-घिसाई, देहरी द्वार की सज्जादि कार्यों से मुक्त होकर अन्य दायित्वों का निर्वहन निश्चित होकर कर सकें। 'फूलदेई' के दिन सुबह-सवेरे बालिकाएँ नहा-धोकर काँसे की थाली या टोकरी में फूल-अक्षत लिए टोली बनाकर घर से निकल पड़ती हैं और अपने गाँव में घर-घर जाकर लोगों की देहरी पर फूल-अक्षत बिखेरती हैं तथा मांगलिक गीत ("फूलदेई देई देणा द्वार, तुमरि देई नमस्कार...") गाती हुई घर परिवार के सुख-समृद्धि की कामना करती हैं। प्रत्येक घर की महिलाएँ उनकी थाली या टोकरी में इच्छानुसार गुड़, चावल तथा रुपये-पैसे आदि डालती हैं। फूलदेई की पूर्व संध्या का वर्णन करते हुए लेखक कहता है - "यह फूलदेई की पूर्व संध्या थी। यानी चैत मास की पहली सुबह की पूर्व की संध्या। ईजा, ठुलिईजा, भौजी और काकी ने दिन में ही ताजा मिट्टी से टोकरियों को पोत दिया था। मिट्टी की सौंधी गंध हर घर को महका रही थी। बच्चे घर-घर में जुटने लगे थे ऐपन तैयार किया जाने लगा, लीपन कार्यकलापों की पहली शुरुआत ऐपन से करने की सीख बुजुर्ग देने लगे थे।"1
'आसमान झुक रहा है' उपन्यास में फूलदेई के अवसर पर बच्चों की टोकरियों की सजावट तथा उन टोकरियों के प्रति बच्चों के उत्साह का सजीव चित्रण किया गया है - "बारी-बारी से टोकरियों में फूल पत्तियाँ व शुभंकर के प्रतीक बनाए गए। अनेक प्रकार की गुलकारी भी की गई। सभी टोकरियों में निश्चित मात्रा में फूल रखकर सजाई जाने लगी। मोतियों के रूप में फूलों के साथ-साथ चावल रखे गए। बच्चे अपनी-अपनी टोकरियों को घूर रहे थे कि कहीं उनकी टोकरी में फूल कम और दूसरे की टोकरी में ज्यादा-ज्यादा तो नहीं रखे हैं। कमसिनों की टोकरियों को छोटे बच्चे घूरते रहे। और कमसिनों की टोकरी में कोई कमी रही, तो फिसफिसाने लगे और उस कमी को पूरी भी करवा रहे थे। आँखों से नींद गायब। प्रातः होने की सभी को प्रतीक्षा। रात भर अपनी टोकरियों पर नजर टिकाए, बच्चे अपनी ठौर से जरा भी नहीं हिले-डुले। आँख लगती तो टोकरी से बड़े भय्या या दीदी के द्वारा फूल चुरा लेने का भय स्वप्न की तरह झकझोर जाता और आँख खुल जाती।"2
ग्रामीण समाज में काम के बोझ तले-दबे तथा अभावों में जीवन यापन करते लोगों के पास इतना समय नहीं होता कि वे प्रतिदिन बच्चों को अच्छी तरह से नहला-धुलाकर उन्हें सजा-सँवार सकें, लोकोत्सव उन्हें यह सुअवसर प्रदान करते हैं। प्रस्तुत उपन्यास में लेखक ने फूलदेई के माध्यम से पहाड़ी गाँवों में रहने वाले लोगों के अभावग्रस्त जीवन को चित्रित किया है - "छोटों के कानों पर ईजा ने एक पुराना चीथड़ा बाँध दिया। चीथड़ा किसी पुरानी गुदड़ी का था या फिर अपने फटे पुराने घाघरे का, और कमसिन यानि नैराणी, खिमिया महेनरी, झुपुली, कमला, सरूली, चना आदि जो अपना बचाव ठंड से कर सकते थे, वे ढेर-सारा सरसों का तेल सिर पर मलकर बालों को सुलझाने का प्रयास कर रहे थे। उन्हें बालों को सुलझाने और सँवारने का मौका ऐसे बार-त्यौहार पर मिलता था। बाकी दिनों में न तो सरसों का तेल सुलभ था न बाल सँवारने की आवश्यकता ही समझते थे हरज्यू के मुंडे जैसे सुबह तीन मील दूर झिमार स्कूल को चल पड़ते या फिर ढोर डंगरों के साथ जंगल को।"3
कुमाऊँ के गाँवों में आज भी जातिगत वर्गभेद लोगों के रहन-सहन, खान-पान तथा क्रियाकलापों में स्पष्टतः दिखाई देता है। यहाँ की संस्कृति में सवर्णों तथा निम्न जातियों के लिए त्योहारों की परंपराएँ भी एक-दूसरे से भिन्न हैं। दूर-दराज के गाँवों में अब भी सवर्ण, निम्न जाति के लोगों को खुद पर आश्रित ही समझते हैं और निम्न वर्ग के लोग इस परंपरा को श्रद्धापूर्वक निभाते हैं। बड़ों के व्यवहार से ही बच्चे सीखते हैं, इस बात प्रमाण हमें इन गाँवों में प्रत्यक्षतः दिखाई देता हैं, वहाँ सवर्णों के बच्चे आज भी तथाकथित छोटी जाति के सहपाठियों के घर नहीं जाते और न उनका दिया खाते हैं, इसी तरह निम्न जाति के लोग भी अपनी संतानों को वर्षों से चली आ रही अपनी परंपरा को निभाने, उच्च जातियों के दासत्व में रहने के संस्कार उन्हें बचपन में ही दे देते हैं - "छोटे और बड़े बच्चे चल पड़े, खेतों की तरफ नहीं बल्कि गाँव में फूलदेई करने। थोड़ी ही देर में वे समूह में बँट गए। छोटे बच्चों का समूह और कमसिनों का समूह नहीं, बल्कि एक समूह जो आगे-आगे, घर-घर, द्वार-द्वार जा रहा था वह सवर्णों के बच्चों का था। उनकी संख्या भी अधिक थी। वे गाँव के ब्राह्मण और राजपूतों की दहलीज पर ही जाएँगे। हरिजनों के घर पर नहीं जाएँगे यह तयशुदा था। दूसरे में थे इस गाँव के हरिजनों के बच्चे। जिनकी संख्या कम थी - दर्जन भर के करीब। वे पूरे गाँव के हर घर पर जाकर फूल बरसाएँगे यह सर्वविदित था। गाँव के सभी सवर्ण उन हरिजनों के ठाकुर सैब हैं। मनिया लुहार, सरपु सुनार, गुसें दर्जी और कलुवा कोली ने इसलिए अपने-अपने बच्चों के कानों में उपके पैदा होते ही मंत्र फूक दिया था - गाँव ठाकुरों का है। ठाकुर दिल के बहुत भले हैं। चाम से अधिक काम को देखते हैं। हमारी कोख में पैदा हुआ है तो ठाकुरों की दहलीज में जाकर अपना पेट भर लेना। जीवन में ठाकुरों के पीछे-पीछे चलेगा तो जरा भी आँच न आएगी।"4
सवर्णों के मनोरंजन हेतु निम्न जाति के स्त्री-पुरुषों का उनके आँगन पर नाचना-गाना भी पुरानी परंपरा रही है, अब यह परंपरा कम दिखाई देती है। सवर्ण लोग दूसरों के घरों में जाकर नाचने-गाने को अपना अपमान समझते थे। यही कारण था सवर्ण परिवारों में बच्चों का नृत्य-गायनादि में पारंगत होना, उनका गुण नहीं बल्कि अवगुण समझा जाता था। संगीत सीखने के प्रति रुचि प्रदर्षित वाली बालिकाओं को उनके माता-पिता यह कहकर फटकार लगाते थे - "क्या तुझे हुड़कियाणी बनना है।" नाचने-गाने वाले ये पुरुष-स्त्री क्रमशः हुड़का-हुड़कियाणी कहलाते हैं। प्रत्येक समाज में प्रत्येक व्यक्ति के अपने गुण एवं विशेषताएँ होती हैं, निम्न जाति में भी जो लोग नृत्य-गायन में पारंगत नहीं होते, वे अपनी अन्य कलाओं के माध्यम से सवर्णों को आकृष्ट करते हैं। वे उत्सव-त्योहारों के अवसर पर अपने हाथों से बनी हुई कोई भेंट (टोकरा, डलिया, डोक्का, सोजा, मोष्टा आदि) उन्हें देते हैं, उसके बदले सवर्णों से उन्हें वर्ष भर अनाजादि मिलता रहता है - "वैसे भी आज से चैत प्रारंभ हो चुका है। गाँव के जवान और बुजुर्ग हरिजन भी अलग-अलग टोलियों में ठाकुरों के घर आँगन पर जाकर ढोल बजाएँगे, गीत-गाएँगे और अपनी बहू-बेटियों को नचाएँगे। तभी तो सवर्ण चैत के महीने को हुड़किया-हुड़कियानी और औजी का महिना कहते हैं। मगर गुसें दर्जी और मनिया लुहार तो ऐसा नाच-गाना नहीं करते। वे अपने ठाकुर को नए साल की 'ओउग' देते हैं। जिसके एवज में ठाकुरों के घर-घर से सूप भर धान, मडुआ या झुंगरा मिलता है और नई फसल के तैयार होने तक के लिए खाने को जुटा लेते हैं। इसकी शुरुआत वे अपने नन्हें-नन्हें व कमसिन बच्चों से इस फूलदेई से ही करवाते हैं। लेकिन सवर्ण ऐसा नहीं करते। वे घर-घर, द्वार-द्वार पर गा-बजाकर और नाच-मोझर करके माँगने पर अपमान महसूस करते हैं - लज्जित होते हैं।"5
बच्चे का जन्म होने के बाद नवजात शिशु के नाम पर एक टोकरी खरीदी जाती है। बाद में बच्चा उसी टोकरी को फूलदेई के दिन घर-घर ले जाता है। घर-घर जाकर बच्चे जिन बातों से अपनी टोकरी भरवाते हैं वे भी पारंपरिक हैं, वे कहते हैं - "आमा तुमर बखार भरी जें हमर टुपर" (आमा तुम्हारा भंडार भरा रहे और हमारी टोकरी)। "काकी तुमर बखार भरी जें हमर टुपर।" "भौजी, ओ भौजी फूलदेई तुमर बखार भरी जें हमर टुपर...।"6 द्वार-द्वार पर जाकर बच्चे अपनी टोकरियों से फूल बिखेरते ऐसा सुवाक्य कहने लगे। हर घर की दहलीज से एक मुलमुलाहट के साथ मुट्ठी भर चावल, पाँच या दस पैसे और या फिर गरम-गरम पूरियाँ उन्हें मिलने लगीं।" 7
कुमाऊँ की लोक संस्कृति में अस्पृश्यता संबंधी भेद-भाव अत्यधिक दृष्टिगत होता है। निम्न जाति के व्यक्ति का स्पर्श तथा उनका छुआ खाना-पीना सवर्ण अपवित्र समझते हैं। समाज की दोहरी मानसिकता पर तब खीझ होती है जब आज भी अनेक गाँवों अथवा कस्बों के लोग किसी निम्न जाति के व्यक्ति का गलती से स्पर्श होने पर स्वयं पर 'गौ-मूत्र' या 'सोने का पानी' (सुनाड़ी) छिड़ककर स्वयं को शुद्ध करते हैं और दूसरी ओर अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए उनकी सहायता लेने में तनिक भी संकोच नहीं करते। प्रस्तुत उपन्यास में जब बसंती अपने पति चंदन ठाकुर द्वारा पिटाई होने के कारण उठ नहीं पाती, तब चंदन धनुवा से उसे उठाने को कहता है। धनुवा और चंदन के संवाद में अस्पृश्यता के स्वर मुखरित हो उठते हैं - "ठकुराइन को उठाकर 'निषाव' ले चलिए। वहाँ पर नाक-कान फूकिए। पानी है तो मुँह पर हल्के-हल्के छींटे मारिए। कुछ कीजिए, ठकुराइन जल्दी ही होश में आ जाएगी।"8
"ठीक है, मगर यह मुझसे उठेगी भी कैसे? पिछले दो दिनों से कमर दर्द चल रहा है मेरा।"9
"इसे उठाकर तू ही क्यों नहीं रख देता, देख क्या रहा है?"10
"क्या कह रहे हैं ठाकुर, मैं तो हाथ भी नहीं लगा सकता। मुझसे ऐसा पाप क्यों करवा रहे हैं। मैं तो डूम हुआ और आप...।"11
"इसे तू जल्दी उठा ले जा, यह बच जाएगी जो अपने भाग्य वरना मरना तो है ही, आज नहीं तो कल।"12
"यह आप कह रहे हैं ठाकुर! ठीक है मैं छूता हूँ ठकुराइन को। भगवान के लिए आप ऐसा कुवचन ना कहें। बची रहेंगी तो 'सोनाडी' करके शुद्ध कर लेंगी।" 13
उच्च वर्गीय चंदन द्वारा अपनी पत्नी बसंती को डंडे से बेताशा पिटते देखकर जब मानवतावश धनुवा उसे बचाने के लिए चंदन के हाथ से छीनकर डंडा छीनकर दूर फेंक देता है तो क्रोधित चंदन पीट-पीटकर जमीन पर पटकता हुआ कहता है - "ओ डूमड़े तेरी ये हिम्मत। तूने मुझे छूने की कोशिश क्यों की? नर-नतारा धनुवा उठा। उसने हाथ जोड़े, "ठाकुर सैब मैंने बड़ी गलती की, मैं डूम, अपनी औकात भूल गया, क्षमा कर दीजिए।"14
कुमाऊँ के ग्राम्य समाज में चिकित्सकों से अधिक झाड़-फूँक, टोने-टोटकों आदि पर विश्वास किया जाता है। यद्यपि सुशिक्षित लोग अब इन बातों पर अधिक विश्वास नहीं करते, किंतु ये परंपराएँ आज भी प्रचलित हैं। 'आसमान झुक रहा है' उपन्यास में बसंती के अस्वस्थ होने पर सब समझते हैं, इसे छल (ऊपरी हवा) लग गया है, जबकि वह अपने पति चंदन की पिटाई से बीमार पड़ी थी। बसंती को भभूत लगाने के लिए उसकी जिठानी अपने पति से कहती है - "केसरी की इजा को पहले भभूती लगा दो।" 15 बसंती की लगी चोट को वह छल-बल (किसी दुरात्मा की छाया) का प्रभाव मानते हैं। हँसुली देवी इस संबंध में पति को बताते हुए कहती है - "आज बैलों को रोकने पर वह गिर पड़ी थी। जरा चोट भी आई है। खून भी बहा था। रोई भी थी। छल-बल की शिकायत हो सकती है।"16
जेठ और बहू द्वारा एक दूसरे को स्पर्श न करने की परंपरा अनेक भारतीय समाजों में रही है, कुमाउँनी समाज में भी यह परंपरा कई स्थलों पर अपने अवशेष रूप में आज भी प्रचलित है। जेठ के पैर न छूना, उनसे पर्दा करना इसी परंपरा के ही द्योतक हैं। 'आसमान झुक रहा है' उपन्यास में दीवान सिंह द्वारा अपनी पत्नी से बसंती को भभूत लगाने को कहना इसी परंपरा का निर्वहन है - "उठ नहीं सकती तो इस भभूती को तू ही उसके माथे पर टिका दे भोलू की ईजा।"17
जब हँसुली देवी अपने पति दीवान सिंह को बसंती को भभूत लगाने के लिए विवष करती है तो दीवान सिंह दुविधाग्रस्त ह़ो जाता हैं। वह सोचता है ऐसा करके वह अपवित्र हो जाएगा तथा उन्हें दुबारा नहाना पड़ेगा - "ठाकुर दीवान सिंह का हाथ ठिठक कर रह गया। वह हाथ न तो वापस ही ला सके अपनी हथेली पर रखी राख पर और न बसंती के माथे पर ही टिका सके। वह सोचने लगे बसंती का स्पर्श किया तो वह एक पाप के भागीदार हो जाएँगे, उसका दंड न मालूम कब मिलेगा। फिलहाल इस ठंड में अभी नहाना पड़ेगा वह घबरा उठे।" 18
समाज में व्यवस्था बनाने के उद्देश्य से सामाजिक नियम बनाए गए, जिससे लोग प्रत्येक संबंध की मर्यादा को समझते हुए संयमित और नैतिकतापूर्ण जीवन यापन करें तथा लोगों में परस्पर मधुर संबंध बने रहे, किंतु जब कभी अज्ञानता व अशिक्षा के कारण लोग देश-काल और परिस्थिति का विचार किए बिना इन नियमों का परंपरागत रूप में पालन करने लगते हैं तो ये समाज की बेड़ियाँ बनकर विकास के मार्ग में अवरोधक बनते हैं तथा मात्र समाजिक रुढ़ि बनकर रह जाते हैं। इससे लोगों की मानसिकता संकुचित होती जाती है; जबकि सामाजिक उन्नति के लिए आवश्यक है सोच का विकसित होना। प्रस्तुत उपन्यास में दीवान सिंह द्वारा बसंती को संकोच से भभूत न लगाया जाना, इसी श्रेणी में आता है। बसंती की जेठानी हरुली देवी अपने पति दीवान सिंह को परिस्थिति अनुसार लचीला बनने के लिए प्रेरित करते हुए कहती है - "अब क्या सोच रहे हैं? कैसे मरद है? कैसे जेष्ठ हैं? बहू की हालत देखी नहीं जा रही और तुम सोच रहे हो छूत लग जाएगी। दुख की घड़ी में तो भगवान भी कुछ नहीं कहते। वे भी माफ कर देते हैं। फिर इस भभूति लगाने पर भूमिया देवता नाराज हो जाएगा तो उससे क्षमा माँग लेंगे। तुम भभूत नहीं फूँकते तो गाँव के दूसरे आदमी को ढूँढ़ना होगा क्या गाँव में?" 19
कुमाऊँ क्षेत्र में यह लोक-विश्वास प्रचलित है, भभूत लगाने से छल-बल दूर हो जाता है; क्योंकि भभूत लगाने वाले के शरीर में भभूत लगाते समय कोई दिव्यशक्ति प्रविष्ट हो जाती है। जब भभूत को माथे पर लगाकर शेष बची हुई राख को वह 'हट' कहते हुए बाहर की ओर फूँकता है, तो छल-बल भी व्यक्ति के शरीर से बाहर निकाल जाता है। बसंती को भभूत लगाते हुए ठाकुर दीवान सिंह की समस्त गतिविधियाँ इसी लोक-विश्वास को प्रकट करती है - "ठाकुर दीवान सिंह बैठे-बैठे बसंती की तरफ सरकने लगे। चुटकी भर राख को बुदबुदाते उन्होंने यो नमन किया गया कोई निरंकार शक्ति चुटकी भर राख में उतर आई हो। फिर बसंती के सिर में घुमाकर खिड़की के बाहर फूँक दिया। इसी प्रकार दो बार बाए से और एक बार दाए से अपने हाथ में रखी राख फूँकी और चौथी बार में गरजते हुए 'हट' शब्द निकला। चुटकी भर राख टिका दी बसंती के माथे पर और हथेली पर की बची राख झटट खिड़की से बाहर फूँक दी।"20
कुमाऊँ में, किसी शुभ कार्य के निविघ्न पूर्णता, अपने किसी अधूरे कार्य को पूर्ण करवाने हेतु अथवा किसी भी मनवांछित फलादि की कामना के उद्देश्य से अपने कुल देवता अथवा क्षेत्रीय देवता के नाम का उचैंण (अपने ईष्ट के नाम पर भेंट स्वरूप चावल एवं रुपये उठाकर रखना) रखने की परंपरा रही है। कहीं-कहीं हम मनौती माँगना भी कह हैं। उपन्यास में जब अमरी बिना बताए घर से चला जाता है उसकी ईजा (माँ) अपनी कुल देवी, गढ़देवी से मनौती माँगती है, तो - "आखिर ठीक एक साल बाद अमरी फौज से छुटटी लेकर घर लौट आया था। उसकी ईजा बहुत खुश हुई थी कि गढ़देवी ने उसकी मनौती मान ली है, गाढ़ से आए पत्थर ने उसकी बात सुन ली है। पूरे गाँव मे हवा हो गई कि गढ़देवी आखिर में अमीरी को घर लौटा ही लाई।"21
भभूत लगाने तथा उचैंण रखने के अतिरिक्त एक अन्य लोक-विश्वास यह भी है, यदि किसी छल-बल अर्थात ऊपरी हवा आदि की आशंका हो तो उससे मुक्ति पाने के लिए सवा मुट्ठी 'कोरी खिचड़ी (कच्चे चावल तथा उड़द की दाल) देनी चाहिए। भभूत लगाने पर भी जब बसंती को विशेष स्वास्थ्य लाभ नहीं होता तो उसकी जेठानी अपने पति से खिचड़ी देने को कहती है - "हंसुली देवी सवा मुट्ठी भर चावल और थोड़ी साबुत उड़द एक निश्चित अनुपात में एक कटोरे में रखकर भीतर से ले आई और ठाकुर दीवन सिंह के हाथों में थमा दी। पीतल के एक लौटे में पानी भरकर कारनिस में रख दिया। ठाकुर दीवन सिंह कोरी खिचड़ी लेकर बसंती के कमरे में गए, देखा वो अभी जस-तस पसरी हुई है। वह कहार रही है अवश्य लेकिन उसके स्वर में फर्क लगा। उन्होंने अपने मन को विश्वास दिलाया की छल-बल को खिचड़ी देने से तत्काल आराम मिल जाएगा। उन्होंने 'कोरी खिचड़ी भरा कटोरा कुछ बुदबुदाते बसंती के ऊपर घुमाया और तेजी के साथ बाहर निकल गए। ...दीवान सिंह चौथर की दीवार का सहारा लेकर उतरे और फिर बाड़े की ढ़िकाव पर जाकर जिस दिशा में बसंती रोई थी, खिचड़ी को अपनी पूरी ताकत से फेंक दिया और लौट आए। कारनिस में रखे लौटे के पानी से हाथ मुँह धोया, खाँसी खुर्रा की और अपने चौथर में जाकर बैठ गए।" 22
कुमाऊँ में भी देश के अन्य क्षेत्रों के अशिक्षित समाज की तरह भूत-प्रेत आदि संबंधी भ्रम विद्यमान है। 'आसमान झुक रहा है' में भी भूत से संबंधित एक दृष्टांत आया है जिसमें हंसुली देवी अपने पुत्र भोला को पिता दीवन सिंह द्वारा देखे गए भूत के बारे में बताती है - "कल रात जब तेरे बौज्यू 'कोरी खिचड़ी' देने गए तो एक भैंसा गुठ्मार में तक उनका पीछा करते आया। भाग्य अच्छें थे कि उससे भिड़ंत नहीं हुई।"23
कुमाऊँ के लोक जीवन में कुछ व्यक्तियों के शरीर में किसी लोक देवता का शक्तिरूप में अवतरित होना भी एक प्रमुख लोक विश्वास है। जिस व्यक्ति पर कोई पराशक्ति अवतरित होती है, उसके विषय में मान्यता है, जब व्यक्ति विशेष के शरीर में लोक देवता अवतार लेता है, उस निश्चित समय में लोग उससे अपनी समस्याओं का समाधान करवाते हैं। यह व्यक्ति विशेष, चावल देखकर अथवा किसी अन्य विधि द्वारा समस्या की जड़ तक पहुँकर लोगों को उनकी समस्या का समाधान बताता है। इस व्यक्ति विशेष को कहीं पुछयारि (पूछताछ के आधार पर समस्या का समाधान करने वाला) कहीं गंतुवा (गणना के आधार पर समाधान सुझाने वाला) कहा जाता है। 'आसमान झुक रहा है' उपन्यास में लेखक ने पुछयारि का विस्तृत वर्णन किया है - "पूछारी! यानि एक औरत! यानि एक मर्द! यानि कमेडुवा गाँव की वह औरत जिसके शरीर पर देवता अवतरित होता है गाँव वासियों के, जड़ चेतन के पूर्वाग्रहों को जो सामने रखती है मुश्किलों के बीच पली-बढ़ी वह औरत जो अपने जीवन से हारकर अब भगवान की शरण जा चुकी है, जिसने प्रत्येक गाँव के हर परिवार के इष्ट देवता से, रौली-गधेरी के परी-मशाण, भूत-पिचाश से साक्षात्कार कर लिया है। वह अब सामान्य औरत से हटकर पूछारी बन गई है।"24
कुमाऊँ में प्रचलित लोक परंपराओं में प्रमुख है, 'जागर लगाना'। जब कभी अनेक प्रत्यनों के पश्चात भी किसी व्यक्ति अथवा परिवार को विपदाओं से छुटकारा नहीं मिलता तो लोग कहते हैं यह 'द्याप्त्योली' (देवता का प्रकोप अथवा रुष्ट होना) के कारण हो रहा हैं। रुष्ट देवी-देवता अथवा अपने पूर्वजों को मनाने के उद्देश्य से जागर लगाई जाती है। कुमाऊँ के गाँवों में लोग सामूहिक या व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान करवाने के लिए भी कभी सामूहिक, कभी व्यक्तिगत रूप में देवी-देवताओं का 'जागर' लगवाते हैं। ये देवता किसी बाहरी व्यक्ति के शरीर में नहीं बल्कि उसी गाँव अथवा आस-पास के क्षेत्रों के लोगों के शरीर में ही अवतरित होते हैं। प्रस्तुत उपन्यास में इन लोक विश्वासों को चंदन तथा दीवान सिंह के मध्य स्थापित संवाद के माध्यम से चित्रित किया गया है - "ठीक है इस घर में कभी छल-बल की चिशाव हुआ नहीं करती थी, आज अपनी करनी घट गई। बार त्यौहार को घर-बाहर एक कड़वे तेल का दिया तक नहीं जलाते। इसलिए यह सब कुछ हो रहा है।"25
एकाएक गंभीर स्वर में अटकते-अटकते दीवान सिंह बोले - "तुझे बौज्यू की तो याद है। माह-दो-माह में गोल देवता की खिचड़ी दिया करते थे, गढ़देवी का जाप किया करते थे...।"26
"दाज्यू तुम ही सोचो, पहले जागर होती थी, पूरे गाँव की परनी जुटती थी और अब...।"27
"खैर कौन किसके भाग्य के अंदर गया है। भाग्य कौन जान सकता है। हाँ, कल ही गाँव के भूमिया के डंगरिया से या भैरों के डंगरिया से भभूति लगवाते तो रात भर बहू को आराम रहता।"28
छल-बल पूजकर चौराहे में रखने की परंपरा भी कुमाऊँ में दृष्टिगत होती है, इस पूजी हुई सामग्री को लाँघने वाले व्यक्ति के ऊपर प्रविष्ट होने का खतरा होता है। नैन सिंह को चौराहे पर छल लगने की अनुभूति हुई वह कहता है - "कहीं यह छल-बल तो नहीं, वरना ऐसा तो कभी नहीं हुआ। चौपथ पर एकाएक दहशत हुई थी। रास्ते की ढिकाव पर के 'किलमौड़े' की टहनी पर लाल चीर भी बँधी देखी थी। रंग-बिरंगी कतरनें और टिकुली बिंदी, चूड़ी-चरेऊ एक नस्यूड़े पर बँधे हुए थे। चौपथ पर इस तरह मशाण पूछने का क्या मतलब।"29
ऐसी भी मान्यता है, किसी की मृत्यु होने पर उसका छल भी लग सकता है, विशेष रूप से बच्चों को बसंती की मृत्यु के बाद माता-पिता बच्चों से कहते हैं - "लीला की ईजा मर गई है। तुम बाहर न निकलना। नहीं तो छल लग जाएगा।"30
कुमाऊँ अंचल की मान्यताओं के अनुसार यदि किसी व्यक्ति को छल लग जाता है तो देवताओं से उसकी पूजा करवाई जाती है। पूजा में विविध सामग्री की आवश्यकता होती है। दीवान सिंह चंदन से कहते हैं - "सीधी-साधी पूजा के लिए टिकुली, बिदुंली, चुडियाँ, चरेऊ से लेकर औरत के छोटे-मोटे सभी श्रृंगार का सामान व बदन पर का एक कपड़ा। क्या कुछ नहीं चाहिए उसके लिए। यह तब जब मशाणी या प्रकोप हो, और मशाण का हो तब तो सुअर, मुर्गा व ढिपरे चाहिए। यह सब तुम्हें पूछारी से ही पूछना चाहिए था।" 31
शगुन-अपशगुन संबंधी अनेक लोक विश्वास भी जैसे पानी से भरा बर्तन देखना शुभ, बिल्ली का रास्ता काटना, सियार-कुत्ते का रोना अशुभ आदि कुमाऊँ अंचल में प्रचलित हैं - "कमेडुआ से लौटते हुए चंदन को प्रधानी नौले से पानी लाते रास्ते में मिली थी। वह बहुत खुश हुआ था पानी से भरा घड़ा देखकर उसने दीवान सिंह को कहा था बसंती अब ठीक हो जाएगी। घर जाने पर उसका दर्द कम हुआ होगा। रास्ते में पानी का घड़ा देखने से शुभ ही होता है।"32
बिल्ली द्वारा रास्ता काटना, कुत्ते-बिल्ली तथा सियारादि का रोना ये अंधविश्वास भारतीय लोक संस्कृति का अंग रहे हैं, कुमाऊँ भी इससे अछूता नहीं है। 'आसमान झुक रहा है' में बिल्ली द्वारा रास्ता काटने पर चंदन परेशान हो जाता है - "एकाएक उसे दहशत हुई। पाँव ठिठक गए। वह घबरा उठा और साथ ही क्रोध ने उसे कँपकँपा, दिया इस बिल्ली ससुरी को अभी आना था। मुझे चौथर की सीढ़ियाँ तो चढ़ने देती। हाय भगवान यह कैसा अपशकुन उसने पिच-पिच-पिचकर तीन बार थूक की पिचकारी-सी मार दी, अपशकुन, यह कैसा अपशकुन।'' ...इसी वक्त उसको पाँव में उलझकर मेरा रास्ता काटना था। ये सभी लक्षण मामूली नहीं।"33
बसंती की मृत्यु से पहले तीन बार फियोन (सियार की जाति का एक जंगली पशु) रोया था, जिससे ग्रामीणवासियों ने आसन्न अपशकुन की आहट पा ली थी - "फियोन भी तीन बार रोया था। उसके चिखने का स्वर सुनकर बुजुर्गों की नींद चौंकी, वे उठकर बाहर निकल आए एक ने दूसरे को जगाया था कोई अनहोनी होगी आज। तीन बार फियोन का रोना महाअपशकुन है। गाँव में कौन है मृत्यु से जूझता हुआ जिसके उठ जाने की खबर उस फियोन ने दी है।"34
कुमाऊँ में कुछ स्थलों पर लड़के वालों द्वारा लड़की के पिता को विवाह का खर्च देकर विवाह कराने की परंपरा भी रही है इसे 'पेंटोडिया' कहते है। भोलू के विवाह के संबंध में इस तरह के विवाह की चर्चा, चंदन व दीवान सिंह के मध्य हुए वार्तालाप में सुनसई देती है - "हिम्मत करके तो सभी काम होते है कन्यादान करवाकर ब्याहना होता तो... तब जरा सोचना पड़ता, 'पेंटोंडी ब्याह करते हैं। पेंटोंड़िया भी करें तो हजार पाँच-सौ की व्यवस्था तो फिर भी करनी ही होगी।" 35
मानसिक संतुलन खो बैठे व्यक्ति को 'सिन्ना' (सिसौंण) लगाने अथवा लाल गरम छड़ लगाने की परंपरा भी कुमाऊँ में रही है, ऐसा उपन्यास के एक दृश्य से दृष्टिगत होता है। चंदन अपने ही बारे में सोचता है - "इससे तो उसका विश्वास दृढ़ हो जाएगा कि में पगला गया हूँ। मैं घर में जंगल का अनुभव कर रहा हूँ। फिर इसके बाद बीसियों बातें चल पड़ेंगी। फिर वही होगा जो एक मानसिक संतुलन खो बैठे व्यक्ति के साथ होता है - सिसोंण-पानी में भिगोया सिसौंण, लाल गरम लोहे की छड़ और फिर गोठ में बंद फिर आदमी और जानवर में कोई फर्क नहीं रहेगा।"36
कुमाऊँ में वृद्ध लोग अपनी ही बहू के हाथ का बना खाना तब तक नहीं खाते जब तक उसे शुद्धि न करवा दें। जब हँसुली देवी के ससुर, सास से बहू को चूल्हा सौंपने को कहते हैं तो सास कहती है - "मैं भी ऐसा ही सोचती हूँ। आप भी। मगर पास-पड़ोस से कल ही पूछेंगे मुझसे, बहू को कब नहला कर लाई हो हरद्वार जो उसके हाथ का बना खाना खा रही हो। तुम तो अघोरी हो। बीसियों तरह की बातें बनाएगें।"37
आज भी कुमाउँनी समाज में कुंडली मिलाकर विवाह करने की परंपरा है। भोलू के विवाह के समय यह परंपरा दृष्टिगत होती है लड़की के घर से आकर दीवान सिंह चंदन को बताता है - "एक बार कुंडली का मिलन करो, फिर संदेश भिजवाओ - कुंडली में संयोग बन गया है। ग्रह अच्छे हैं। और फिर मैंने सोचा सारी बातें हो जाए तो कुंडली की बात बाद में होती रहेगी।"38
अपनी मनोवांछित कामना पूरी होने पर देवताओं व पितरों को पूजा देने की परंपरा भी है - "नैनसिंह की चहल कदमी बढ़ गई। कभी घर के एक कोने पर बने यान पर जाता तो कभी चौथर पर खड़ा-खड़ा पितरों को याद करता-आज इज्जत बच गई तो घर में पूजा देगा।"39
कोई शुभ अथवा महत्वपूर्ण कार्य करने से पूर्व अपने देवता को याद करने की परंपरा हर समाज में है। कुमाऊँ भी इससे अछूता नहीं हैं नैनसिंह कहता है - "एक बात और कल छप्पर में बच्चों के प्रवेश करने से पहले एक बार भगवान का नाम लेना न भूलें। सुबह गाँव के सभी लोग वहाँ चलेंगे। बामदेव पंडित ज्यू एक पाठ कर लेंगे।" 40
निःसंदेह 'आसमान झुक रहा है' उपन्यास में कुमाऊँ के लोक जीवन में व्याप्त जिन लोक विश्वासों, मान्यताओं एवं रूढ़ियाँ को उजागर किया गया हैं, वे यहाँ विद्यमान रहीं हैं; किंतु शिक्षा के प्रचार-प्रसार तथा गाँवों से पलायन आदि के कारण अनेक लोक विश्वासों एवं रूढ़ियों का निरंतर क्षरण होता जा रहा है। अंधविश्वास, अस्पृश्यता आदि रूढ़ियों का कम होना, किसी भी समाज के विकास का संकेत है। अब नई पीढ़ी के अनेक युवक-युवतियाँ दिखावटी परंपराओं, मान्यताओं व रूढ़ियों के विरुद्ध आवाज उठाने लगे हैं। उपन्यास में ठाकुर नैनसिंह का बेटा भोलू अस्पृश्यता, इलाज के स्थान पर पूछारी-गंतुओं आदि का विरोध कर नई पीढ़ी के समझदार लोगों का प्रतिनिधित्व करता दिखाई देता है। गोपुली लुहारिन द्वारा पानी को स्पर्श किए जाने पर चाचा चंदन द्वारा उस पानी को गिराए जाने की बात सुनकर भोलू तर्कों द्वारा उन्हें इस अंधविश्वास से मुक्त करने का प्रयास करता हुआ कहता है - "आपके शास्त्रों में यह भी तो लिखा होगा जिस ताँबे के घड़े का पानी आप लोग पीते आ रहें हैं वह भी बंसी टम्टा ने बनाया है। जिस घर में हम रह रहे हैं वह भी किसी 'ओढ' का बनाया है और जिन कपड़ो को आप पहने हुए है वह भी तो गुसैं दर्जी ने सीए हैं, जिन्हें पहनकर आप अपने देवता के थान पर, भूमिया की जातर में जाते हैं।"41
भोलू बसंती काकी का इलाज पुछार, भभूत आदि करने का भी विरोध करता है। वह चाहता था कि काकी का इलाज वैद्य से कराया जाता। काकी की बीमारी के संबंध में छल-बल की झूठी बातें फैलाने पर वह समस्त राज से मानो पर्दा उठा देता है। वह कहता है - "आप लोगों की मति भ्रमित हो चुकी है इसीलिए काकी की ऐसी हालत कर दी, पूरा गाँव अँगुली उठा रहा है। घर-घर में चर्चा हो रही है काका से पूछो ये हालत किसने ही, भूत-भूतनी ने या फिर आप ने। छल-बल का एक भी लक्षण दिखा आप लोगों को या यों ही हव्वा बना रहे हैं। वैसी ही वह पूछारी। जो अपना भला नहीं कर सकती। अपना पेट नहीं भर सकती। वह दुनिया का भला करने चली है। इससे अच्छा होता भीख माँग लेती। भीख माँगने के लिए भी तो मेहनत करनी होती है तब धूप-अगरबत्ती से पूजा कौन करेगा उसकी। बेवकूफ बनाने का अच्छा धंधा चल पड़ा है उसका। आप लोग भी आ गए उसकी गिरफ्त में। गाँव में वैद्य हैं - कहीं जाना भी नहीं पड़ता - बुलाते, चोट-चपट की दवा पुड़िया करते।"42
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि हरिसुमन बिष्ट के उपन्यास 'आसमान झुक रहा है' में कुमाऊँ में प्रचलित लोक विश्वास, मान्यताएँ, रूढ़ियाँ तथा परंपराएँ पूरी जीवंतता के साथ उपस्थित हैं। ये परंपराएँ रूढ़ि बनकर किस प्रकार पिछड़ेपन और समस्याओं जन्म देती हैं, इसका वर्णन उपन्यासकार ने बेबाक होकर किया है। अस्पृश्यता, छूआछूत जो हर काल तथा समाज में उपस्थित है, परंतु इन समस्याओं के प्रति लेखक का दृष्टिकोण आशावादी है। इसीलिए लेखक ने समस्याओं को उजागर करने के साथ-साथ भोलू के माध्यम से पाठकों को उन समस्याओं पर विचार करने के लिए प्रेरित किया हैं तथा यह भी बताया हैं, पुरानी रूढ़ियों को माना जाना कितना तर्क संगत है। इस प्रकार उपन्यास में लेखक कुमाउँनी समाज में व्याप्त ऐसी रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों को समाज से हटाने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई देता है जो मानवता को कलंकित करती हैं तथा समाज के विकास में बाधक बनती हैं
संदर्भ सूची :
1. बिष्ट हरिसुमन, आसमान झुक रहा है, प्रकाशक- अल्मोड़ा बुक डिपो 1998, पृष्ठ - 11
2. वही
3. वही
4. वही, पृष्ठ - 12
5. वही
6. वही, पृष्ठ - 13
7. वही
8. वही, पृष्ठ - 35
9. वही
10. वही
11. वही
12. वही, पृष्ठ - 35,36
13. वही, पृष्ठ - 36
14. वही, पृष्ठ - 31
15. वही, पृष्ठ - 75
16. वही
17. वही
18. वही
19. वही
20. वही, पृष्ठ - 76
21. वही, पृष्ठ - 80
22. वही, पृष्ठ - 85, 86
23. वही, पृष्ठ - 88, 89
24. वही, पृष्ठ - 90
25. वही, पृष्ठ - 92
26. वही, पृष्ठ - 93
27. वही
28. वही
29. वही, पृष्ठ - 142
30. वही, पृष्ठ
31. वही, पृष्ठ - 94
32. वही, पृष्ठ - 97
33. वही
34. वही, पृष्ठ - 101
35. वही, पृष्ठ - 110
36. वही, पृष्ठ - 114
37. वही, पृष्ठ - 123
38. वही, पृष्ठ - 125
39. वही, पृष्ठ - 193
40. वही, पृष्ठ - 201
41. वही, पृष्ठ - 120
42. वही, पृष्ठ - 121
सहलेखिका - घनाक्षी पांडे